शमशेर बहादुर सिंह: गूगल इमेज से साभार |
वही उम्र का एक पल कोई लाए
तड़पती हुई सी गजल कोई लाए
अपने इस शेर के जरिये तड़पती हुई गजल की ख्वाहिश करने वाले शमशेर ने खुद अपनी कलम से ऐसी तड़पती गजलें लिखी हैं जो हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर कही जा सकती हैं। शमशेर की पहचान हिन्दी साहित्य में एक प्रयोगवादी कवि के रूप में है। ऐन्द्रिक सौन्दर्य के वे अनुपम बिम्बवादी कवि रहे हैं। लेकिन उनकी साहित्यिक पृष्ठभूमि का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि उन पर अंग्रेजी कवि एजरा पाउण्ड के साथ ही साथ उर्दू काव्य परम्परा का भी गहरा प्रभाव था। वह ऐसी जमीन पर निगाह रखते थे, जहॉं उर्दू-हिन्दी दोनों लगभग एक नजर आती है। इसलिए उन्होंने विलक्षण मार्मिकता के साथ लिखा था-
वो अपनी की बातें वो अपनों की खुशबू।
हमारी ही हिन्दी, हमारी ही उर्दू।
उनकी यह गंगा जमुनी तहजीब उनके साहित्य में भी दिखाई देती है। शमशेर की कविताओं के बारे में काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है, लेकिन एक गजलकार के रूप में शमशेर का हिन्दी साहित्य को जो योगदान रहा है, उस पर लोगों का ध्यान कम ही गया है। आम तौर पर हिन्दी साहित्य का सामान्य पाठक हिन्दी गजल का आरम्भ दुष्यन्त कुमार से मानता है। लेकिन वास्तव में हिन्दी गजल लेखन का व्यवस्थित प्रयास सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की रचना ’बेला’ से प्रारम्भ होता है। निराला के समकक्ष जानकी वल्लभ शास्त्री ने भी कुछ गजलों की रचना की। त्रिलोचन ने भी कुछ एक गजलें लिखीं पर वे सॉनेट में ही अधिक रमे रहे।
हिन्दी गजल लेखन के क्षेत्र में सर्वप्रथम गम्भीरता से प्रयास करने वाले शमशेर बहादुर सिंह ही थे। सुषमा भटनागर ने 'समकालीन भारतीय साहित्य' के 77वें अंक में लिखा है, ''हिन्दी के किसी भी स्थापित कवि ने शमशेर के बाद गजल की राह में कदम बढ़ाने का साहस नहीं किया।'' अपने समकालीन हिन्दी कवियों में शमशेर ही सबसे सशक्त उर्दू पृष्ठभूमि रखने वाले कवि थे।
शमशेर विशुद्ध मानवीय कवि थे। किसी भी रचनाकार का अनुभव जगत बड़ा विस्तृत होता है। फिर शमशेर जैसे संकोची और आत्मसंयमी व्यक्ति के विषय में कुछ कह पाना तो और भी कठिन हो जाता है। शमशेर ने अपने बारे में वह लगभग नहीं कहा जिसे मर्मान्तक पीड़ा में झेला है। पारिवारिक त्रासदी और उस त्रासदी से उत्पन्न विघटन से शमशेर बहुत अधिक प्रभावित थे, तथा अपने प्रति बहुत अधिक उदासीन हो गये थे। फिर उनका यह भी मानना था कि कला कैलेण्डर की चीज नहीं। इसलिये उन्होंने अपनी रचनाओं के प्रकाशन में कभी अधिक दिलचस्पी नहीं ली या पहल नहीं की। इसी कारण वह हिन्दी साहित्य में देर से पहचाने गये। इसलिये इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि उनके गजलकार रूप का समग्र मूल्यांकन नहीं हो सका।
अपने परिवार और परिवेश से शमशेर ने उर्दू के प्रति आदर का भाव प्राप्त किया था। इससे उन्हें अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति को संवारने का अवसर मिला। आठवीं-नौंवीं कक्षा में आकर हिन्दी कविता की शुरुआत भी कर दी थी। गजल कहना भी शुरू हो चुका था। शमशेर का हाई स्कूल के जमाने का शेर है-
छेड़ मत दिल को कि पर्दे चाक हैं
आह निकलेगी फकत इस साज से।
गजल में गालिब उन्हें किसी भी मौके पर याद आ जाते हैं। गालिब शमशेर के जीवन के अंदर तक रमे हुए हैं। समस्या को देखने की खास नजर और उसको रखने का उनका अनूठा ढंग उन पर गालिब के प्रभाव के कारण है। गालिब का यह शेर शमशेर को अक्सर कुरेदता है-
दिले नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
इकबाल को भी शमशेर आदर्श रचनाकार मानते हैं। इकबाल पर हिन्दी में सबसे पहले शमशेर ने ही लिखा है। शमशेर के अनुसार इकबाल एक दार्शनिक कवि हैं। उनके अंदर जो आत्मिक शक्ति है वह अदभुत और अतुलनीय है। गालिब व इकबाल में भाषा, प्रतिभा और अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा है। इकबाल को पढ़ें तो पायेंगे कि उनका कवि राजनीतिज्ञ से कहीं ऊपर है और इसी प्रकार नजीर अकबराबादी और फानी। शमशेर की मानें तो अनुभूतियों की सूक्ष्मता के कारण इन्हें उर्दू के 'फोर ग्रेटेस्ट पोएट्स' में माना जाता है। नजीर की काव्य भाषा शमशेर को आदर्श लगती रही है। शमशेर की गजलों पर इन सभी का प्रभाव है लेकिन वह इन कवियों की परछाइयों से दबकर नहीं रह गये, बल्कि इनकी मदद से अपनी कला को और निखारने की कोशिश की है। उन्होंने अपनी उर्दू रचनाओं (अधिकतर गजलों के शेर) पर अपने दोस्त उर्दू के छंदशास्त्र में निष्णात् डॉ0 मुगीसुद्दीन फरीदी से भी लाभ उठाया।
शमशेर की गजलें फुटकर रूप में समय-समय पर प्रकाशित हुई लेकिन वाणी प्रकाशन ने समग्र रूप से इनकी गजलों का संग्रह 'सुकून की तलाश' के नाम से वर्ष 1998 में प्रकाशित किया। शमशेर की गजलों में प्रेम और सौन्दर्य है, मोहभंग, निराशा, आम आदमी की पीड़ा की भी अभिव्यक्ति है। उनकी गजलों में बुनियादी थीम वह तड़प है जो महबूब के नाम से जुड़ी हुई है, एक निजी प्रेम संवाद जैसे उछाल लेकर वृहत्तर देश काल से जा टकराता है-
इश्क की मजबूरियां हैं, हुस्न की बेचारगी
एक आलम देखियेगा, आइना देता हूँ मैं
शमशेर के यहॉं जीवन को नये-नये रूपों में देखने की इच्छा ही कविता की मुक्ति या आजादी का पर्याय है-
उलट गये सारे पैमाने कासागरी क्यों बाकी है
देस के देस उजाड़ हुए, दिल की नगरी क्यों बाकी है
शायद भूले-भटके किसी को रात हमारी याद आयी
सपने में जब मान मिले फिर बेखबरी क्यों बाकी है
किसका सॉंस है मेरे अन्दर, इतने पास औ' इतनी दूर
इस नजदीकी में दूरी की हमसफरी क्यों बाकी है
कुछ साहित्यकार या कवि ऐसे वातावरण में अपनी साहित्य साधना कर लेते हैं, जहॉं अभाव, परेशानियां, तकलीफ इत्यादि का नाम भी नहीं होता उनकी रचनाओं में करुणा, दुखों के रोने का उल्लेख तो होता है पर इतना सशक्त और दमदार बोलते शब्दों में नहीं होता कि आदमी तो आदमी, शब्द और पंक्तियों के आंसू निकल आयें। ऐसी दु:ख और दर्द भरी रचनाएं वही रच सकता है जिसकी काया और मन को दुख-दर्द और आहें भरती हवाओं ने सख्त पपड़ी की सूरत में सुखाकर रख दिया। दर्द का मारा जब भी कुछ कहेगा, उसके मुँह से फूल बरसने के बजाय, इंसान की बेचारगी, मजबूरियॉं और मर्मान्तक पीड़ा ही निकलेगी-
उसने किये बहुत जतन हार के कह उठी नजर
सीना-ए-चाक का रफू हमसे कभी सिला नहीं।
दर्द को पूछते थे वो मेरी हँसी थमी नहीं
दिल को टटोलते थे वो मेरा जिगर हिला नहीं।
शमशेर की गहरी वेदना, करुणा, उदासी- ये चीजें उनकी गजलों को हमारे बिल्कुल करीब लाती हैं जो एकान्त और अकेलेपन की सहचर थी।
क्या हुआ परदेस है, पर सुर है बूँदों में वही
यार मेरे, कोई कजरी छेड़ सावन में जरा।
शमशेर का कोमल हृदय जब प्रेम की प्रस्तुति करता है तो प्रेम की स्पष्टता और भी खुलकर सामने आती है जो अकेले कवि को अकेलेपन का एहसास करा जाती हैा यही नहीं, प्रेमिका की निष्ठुरता के बावजूद प्रेमी का अनन्य प्रेम जैसा शमशेर ने अपनी रचना में व्यक्त किया है उसकी बानगी देखिये-
जहॉं में अब तो जितने रोज अपना जीना होना है।
तुम्हारी चोटें होनी हैं हमारा सीना होना है।
शमशेर की गजलों का सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार भी स्पष्ट है। अधिकांश लोगों की धारणा है कि उनकी गजलों में प्रेम की प्रधानता है पर ध्यान देने पर एक बात स्पष्ट हो जाती है कि व्यक्ति और समाज उससे कटे हुए नहीं हैं। उदाहरण के लिए, साम्राज्यवाद के नाम पर आम लोगों के साथ होने वाले छल पर व्यंग्य करते हुए वह लिखते हैं-
बनियों ने समाजवाद को जोखा है
गहरा सौदा है काल भी चोखा है
दुकानें नई खुली हैं आजादी की
कैसा साम्राज्यवाद का धोखा है।
समाज में व्याप्त धार्मिक विद्वेष पर भी हमला करते हुए उन्होंने लिखा है-
जो धर्मों के अखाड़े हैं उन्हें लड़वा दिया जाये।
जरूरत क्या कि हिन्दुस्तान पर हमला किया जाये।
यद्यपि शमशेर ने अपनी गजलों में वैसी राजनीतिक मुखरता और तेवर नहीं दिखाए जैसे बाद में दुष्यन्त इत्यादि की गजलों में देखने को मिलते हैं। लेकिन वे तत्कालीन राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ भी नहीं थे-
परचमे इस्लाम के हैं साथ अमरीकी निशान
हो गया कुर्बान डालर पर जमाना देखिए।
शमशेर के पूरे कृतित्व पर नजर डालें तो वह प्रेम, सौन्दर्य और मानवीय सरोकारों के रचनाकार के रूप में सामने आते हैं । लेकिन एक धीर-गम्भीर व्यक्तित्व वाले कवि होते हुए भी शमशेर की गजलों में यथास्थान हास्य-व्यंग्य का पुट भी देखने को मिलता है-
दादा की गोद में पोता बैठा 'महबूबा! महबूबा गाए
दादी बैठी मूड़ हिलाए हम किस जुग में आए गए
गीत ग़ज़ल है फ़िल्मी लय में शुद्ध गलेबाज़ी शमशेर
आज कहां वो गीत जो कल थे गलियों गलियों गाए गए
शमशेर ने मनुष्य की जिन्दगी के सबसे खूबसूरत पहलू अर्थात् मिलन पर भी गजलें लिखी हैं। शमशेर ने प्रेमी प्रेमिका के संयोग और विवाह जैसे खुशी के मौके पर भी गजल लिखी है-
दादा की गोद में पोता बैठा 'महबूबा! महबूबा गाए
दादी बैठी मूड़ हिलाए हम किस जुग में आए गए
गीत ग़ज़ल है फ़िल्मी लय में शुद्ध गलेबाज़ी शमशेर
आज कहां वो गीत जो कल थे गलियों गलियों गाए गए
शमशेर ने मनुष्य की जिन्दगी के सबसे खूबसूरत पहलू अर्थात् मिलन पर भी गजलें लिखी हैं। शमशेर ने प्रेमी प्रेमिका के संयोग और विवाह जैसे खुशी के मौके पर भी गजल लिखी है-
गुलशन से जो इतराती आंगन में बहार आई।
खुशजौक दुल्हन उसकी शोखी को सँवार आई।
यह कौन निगार आया, फिर बॉगे हजार आई।
कलियों पे निखार आया, फूलों पे बहार आई।
शमशेर अपनी गजलों में अपने दिल के दर्द को सहजता से ज्यों का त्यों बयान करते हैं और गजल में पूरी नरमी और मुलायमियत के साथ अपने अस्तित्व को प्रस्फुटित कर देना चाहते हैं-
अपने दिल का हाल यारों हम किसी से क्या कहें।
कोई भी ऐसा नहीं मिलता जिसे अपना कहें।
हो चुकी जब खत्म अपनी जिन्दगी की दास्तॉं
उनकी फरमाइश हुई है, इसको दोबारा कहें।
शमशेर ने अपने समकालीन कवियों पर भी गजलें लिखी हैं। मुक्तिबोध की बीमारी के दिनों में वे रोज उनकी सेवा कर रहे थे और हर दिन लौटकर एक शेर लिखा करते थे। एक ही मीटर में लिखे गये उन शेरों से अंत में जो पूरी गजल बनी, उस गजल का आखिरी शेर कुछ इसतरह है-
वो सरमस्तों की महफिल में गजानन मुक्तिबोध आया
सियासत जाहिदों की खंदए-दीवाना हो जाए
इसी तरह गुमनामी की मौत मर जाने वाले कहानीकार और नाटककार भुवनेश्वर प्रसाद पर उन्होंने लिखा है-
जगह-जगह तेरी बातें थीं, तेरे चर्चे थे
जमाना क्या वो हमको नहीं याद, क्या कुछ था।
जो 'कारवॉं' से उठी थी सदाए-बॉंगे-जरस,
उसी पे चलता अगर बादाबाद क्या कुछ था।
लिखी थी नज्म तो अंग्रेजी में मगर क्या खूब,
जो और बढ़ता यह हिन्दी नजाद क्या कुछ था।
तबाह कर दिया तुझको शराबखोरी ने
वरना तू भुवनेश्वर प्रसाद क्या कुछ था।
शमशेर को जो संस्कार अपने पूर्वजों से मिले, उनमें हिन्दी और उर्दू के बीच विभेद नहीं था, बल्कि उन्होंने गंगा जमुनी तहजीब विरासत में पाई थी। शमशेर के समय का इतिहास राजनीति और जातीयता के स्वार्थों और गुलामी के जमाने की शिक्षा नीति का इतिहास है और शमशेर इस इतिहास के कायल कभी नहीं रहे। साम्प्रदायिक विद्वेष के वे सदा विरोधी रहे और उन्होंने अपनी गजलों में इस विरोध को मुखर किया है-
धर्म तिजारत पेशा था जो वही हमें ले डूबा है
बीच भंवर के सौदे में यह इक खंजरी क्यों बाकी है
शोर भजन औ' कीर्तन का है या फिल्मी धुनों का हंगामा
सर पे ही लाउडस्पीकर की टेढ़ी छतरी क्यों बाकी है
शमशेर की गजलों में भाषा के महत्व पर तो पूरा अध्याय लिखा जा सकता है। गजलों की एक लिरिक विद्या है, जिसकी कुछ शर्तें हैं, अपना प्रतीकवाद है, अपनी जीवन्त परम्परा है। शमशेर ने गजलें थोड़ी ही, और केवल अपने गाने-गुनगुनाने के लिए ही लिखीं और उसमें किसी मौलिकता का दावा भी नहीं, और असाधारण कवि होने का ही दावा कम है। भाषा के आधार पर शमशेर अपने समकालीन कवियों और वर्तमान कवियों से पृथक व श्रेष्ठ माने जाते हैं, परम्परागत उर्दू और खड़ी बोली दोनों में परिपक्व होने के कारण शमशेर दोनों ही भाषाओं में अद्भुत रचनायें दी हैं। कविता के शिल्प का विकास करने में उन्होनें काफी सफलता प्राप्त की है। उनकी भाषा में गजब का पैनापन है। शब्दों के साथ रंगों का मनमोहक संयोजन, कथन की सादगी और भावार्थ का सौन्दर्य ऐसा है कि पाठक बड़ी सहजता से मुस्कुरा उठता है। उनकी गजलों के पढ़ने का तुक और लय उर्दू परम्परा और शैली के अनुसार ही है।
उनकी भाषा में हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के अपने नाक-नक्श मिट जाते हैं और एक मिश्रित भाषा बह निकलती है जो उनके भावों को व्यक्त करने में पूरी तरह समर्थ है। शमशेर के बिम्बों की तरह यह मिली-जुली साझा भाषा है। वास्तव में शमशेर बहादुर सिंह की भाषा गंगा जमुनी भाषा है जो भारतेन्दु और प्रेमचन्द की भाषा के निकट ठहरती है। जहां एक ओर उर्दू की सीध सूक्ति शैली में बात तीखे असर के साथ समाप्त होती है,वहीं दूसरी ओर हिन्दी की बिम्ब प्रक्रिया अपनी द्वन्द्वात्मकता में अनुभूति को अंतहीन और असीम बना देती है। वहीं मुहावरे हिन्दी और उर्दू दोनों की जान हैं। इन सबके प्रयोग से जो मिश्रित भाषा बनती है उसे उनकी इन गजलों से समझा जा सकता है-
बहुत काम बाकी है टाला पड़ा है।
मगर उनकी ऑंखों पे जाला पड़ा है।
सुराही पड़ी है, पियाला पड़ा है।
करें क्या, जुबानों पे ताला पड़ा है।
*****
यहॉं कुछ रहा हो तो हम मुँह दिखाऍं
उन्होंने बुलाया है क्या ले के जाऍं
कुछ आपस में जैसे बदल-सी गई हैं
हमारी दुआऍं तुम्हारी बलाऍं
शमशेर की गजलों पर हम गौर करें तो पायेंगे कि वह सजावट और बनावट के ऊपर जोर नहीं देते। इसलिये उनके यहॉं उपमा, रूपक अलंकार आदि का ज्यादा प्रयोग नहीं देखने को मिलता, जैसा कि उनकी कविताओं में मिलता है। कविता लिखते समय वह अधिक छूट लेते हैं, लेकिन उनकी गजलों में अलंकरण का नितान्त अभाव हो ऐसा भी नहीं है। एक उदाहरण देखिये-
वो जुल्फों में सब कुछ छिपाए हुए हैं
अंधेरा लपेटे उजाला पड़ा है।
शमशेर की गजलों को पढ़कर यह बात समझ में आती है कि हिन्दी के बिना उर्दू, और उर्दू के बिना हिन्दी पूरी नहीं हो सकती। डॉ0 नामवर सिंह ने कहा है कि शमशेर हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमनी तहजीब के अपने ढंग के बिरले अदीब थे। डॉ0 दिलीप सिंह के अनुसार, ''शमशेर उर्दू काव्यभाषा के संस्कार को हिन्दी में संभव बनाने वाले कवि हैं।'' शमशेर ने निराला से आगे जाकर नए-नए काव्य रूप और भाषा की संभावना की तलाश की है, तथा निरन्तर निज से संवाद करने वाले इस कवि की उर्दू साहित्य के लिए दीवानगी अद्वितीय है। साम्प्रदायिक सौहार्द को सम्भव बनाने वाली लोकभाषा के साथ शमशेर के पास उर्दू शब्दावली ही नहीं, उर्दू साहित्य की पूरी परम्परा और भाषिक-विधान भी मौजूद है। हिन्दी में गजल को प्रतिष्ठित करने वाले कवियों में शमशेर अग्रणी कवि हैं। उनके समकालीन किसी अन्य हिन्दी कवि में उर्दू भाषा-साहित्य का ऐसा समृद्ध संस्कार नहीं था। लेकिन शमशेर की गजलों की चर्चा शायद ही कभी किसी बड़े मंच पर गम्भीरता से की गई हो। उनके कवि रूप को लेकर तमाम आलोचकों ने अपनी आलोचनाएं लिखी हैं, लेकिन एक गजलकार के रूप में शमशेर का समग्र मूल्यांकन का प्रयास किसी आलोचक ने नहीं किया। शमशेर उर्दू में पूरी सतर्कता के साथ रचना करते हैं, व्याकरण, छन्द इत्यादि का पूरा ध्यान रखते हैं, लेकिन हिन्दी कविता लिखते समय वह पर्याप्त छूट लेते हैं। सम्भवत: उर्दू की काव्य-परम्परा उन्हें इतनी अधिक छूट नहीं देती, इसलिये उन्होंने उर्दू में अधिक काव्य रचना नहीं की, लेकिन जो भी लिखा है वह किसी भी श्रेष्ठ उर्दू साहित्यकार की कृति के समकक्ष रखा जा सकता है। वह लिखते भी हैं-
जा उठा के पढ़ ले कागज जिस पे मेरा शेर है
देखना वह शेर है या दूसरा शमशेर है।
यह उनका अहंकार या बडबोलापन नहीं, बल्कि उनके साहित्य का सौ फीसदी सच है।
16 टिप्पणियां:
शमशेर जी की ग़ज़लों पर लिखा आपका ये लेख शोध पूर्ण और प्रेरक है...आपने बहुत करीने से उनकी ग़ज़लों पर लिखा है...इस प्रशंशनीय प्रयास के लिए आपको अनेकानेक धन्यवाद...
नीरज
आदरणीया डॉ.मानवी मौर्य जी
सस्नेहाभिवादन !
नेट-भ्रमण करते हुए आपके यहां आ पहुंचा , आया तो घंटे भर से आपकी पुरानी पोस्ट्स देखने में तल्लीन हो गया …
शमशेर जी की रचनाएं तो पाठ्य-पुस्तकों , संकलनों , पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता ही आया था ।
वर्ष 2002 में प्रकाशित मेरे प्रथम राजस्थानी ग़ज़ल संग्रह रूई मांयीं सूई के लोकार्पण समारोह के कार्यक्रम में गुणी वक्ताओं ने जब कई बार शमशेर - शमशेर नाम लिया तो इनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर और विस्तार से जानने की उत्कंठा जाग्रत हुई थी …
समय निकलते-निकलते , अन्य गतिविधियों में उलझते , व्यस्त रहने के कारण यह बात विस्मृत भी हो गई ।
निश्चित रूप से आपके इस महत्वपूर्ण आलेख से बहुत कुछ जानने को मिला है ।
आपके ब्लॉग पर और भी महत्वपूर्ण सामग्री है , उन्हें भी पढ़ कर लाभान्वित होने का निश्चय है ।
आभारी हूं कि आप जैसी विदुषी नेट पर सक्रिय है ।
मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शमशेर बहादुर सिंह जी के बारे में आपने बहुत सुन्दरता से विस्तारित रूप से लिखा है! बहुत बढ़िया, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक जानकारी प्राप्त हुई! धन्यवाद!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://khanamasala.blogspot.com
शमशेर जी की ग़ज़लों की दुनिया में विचरण करना अच्छा लगा।
विस्तृत विवेचना से कवि का भाव जगत मूर्त और मुखर हो गया है।
बधाई आपको।
बढ़िया प्रभावशाली परिचय .... ....
शुभकामनायें आपको !
एक महान रचनाधर्मी का बेहतरीन परिचय करवाया आपने.....
shamsher ji ke ek naye roop se pahchan hui..... sach unki lekhan pratibha kafi utkrishta hai.bahut hi gahan lekh.
.
www.srijanshikhar.blogspot.com
निश्चित रूप से कहा जा सकता है की शमशेर जी का लेखन हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है ...आपने बहुत शोधपूर्ण तरीके से उनके रचनाकर्म पर प्रकाश डाला है ...आपका आभार
Very resourceful article.
बेहतरीन लगा शमशेर पर यह आलेख!!
जी के काव्य जगत का कौना कौना आलोकित किया है आपने ,आप से सहमत हैं हम भी पूरी तरह .आभार इस पोस्ट को सांझा करने के लिए .
शमशेर जी के काव्य जगत का कौना कौना आलोकित किया है आपने ,आप से सहमत हैं हम भी पूरी तरह .आभार इस पोस्ट को सांझा करने के लिए .
डॉ.मानवी जी
नमस्कार
शमशेर जी की ग़ज़लों के बारे में आपने बहुत सुन्दरता से विस्तारित रूप से लिखा है!
....प्रशंशनीय
आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं
संजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
पर आपका स्वागत है
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
bahut hi acchi parichay prasuti hai...
शम्शेर जी के गजल योगदान का ईतिहास पढ्कर ज्ञान प्राप्त हुवा।
- देवी पन्थी , गजल समालोचक , नेपाल
बहुत काम बाकी है टाला पड़ा है।
मगर उनकी ऑंखों पे जाला पड़ा है।
सुराही पड़ी है, पियाला पड़ा है।
करें क्या, जुबानों पे ताला पड़ा है।
बहुत बहुत शुक्रिया
शमशेर जी पर शोधपूर्ण लेख बहुत उम्दा है ।
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