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मंगलवार, 5 मई 2009

हिन्दी साहित्य का महात्मा गाँधी

११ अप्रैल २००९ को हिन्दी साहित्य का एक और रत्न हमारे बीच से चला गया। श्री विष्णु प्रभाकर जी के निधन से हिन्दी साहित्य उसी प्रकार अनाथ हो गया है जिस प्रकार राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की मृत्यु से भारतवर्ष पितृविहीन हो गया था। विष्णु जी सच्चे अर्थो में हिन्दी साहित्य के महात्मा गाँधी थे। बचपन से ही वो गाँधी जी से प्रभावित थे। गांधीवाद का प्रभाव अंत तक उनके लेखन पर रहा। उनके विचारों, वेशभूषा और व्यक्तित्व में भी गांधीवाद की झलक स्पष्ट दिखाई देती थी।


सन १९१२ में उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर जिले के मीरपुर गाँव में जन्मे विष्णु जी का बचपन हिसार में अपने मामा के यहाँ बीता। वहीं से उन्होंने मैट्रिक किया। आर्थिक अभाव के कारण चतुर्थ श्रेणी में सरकारी नौकरी करके आगे की पढ़ाई पुरी की। सन १९५५ से १९५७ तक नई दिल्ली में आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक के रूप में कार्य किया।


विष्णु जी की पहली कहानी "दिवाली के दिन" सन १९३१ में छपी थी। तब से शुरू हुआ साहित्य रचना का सफर ८ दशकों तक चलता रहा। उन्होंने विभिन्न विधाओं में निर्बाध रूप से साहित्य रचना की एवं सराहे भी गए। कहानी संग्रह, उपन्यास, नाटक, संस्मरण आदि लिखने के साथ ही उन्होंने बंगला साहित्य की पुस्तकों की भी रचना की।


विष्णु जी की प्रमुख साहित्यिक कृतियों में आवारा मसीहा, अर्धनारीश्वर, ढलती रात, स्वप्नमयी, हत्या के बाद, नवप्रभात, प्रकाश और पर्च्चैयाँ, धरती अब भी घूम रही है, क्षमादान, दो मित्र, पंख-हीन इत्यादि हैं। अर्धनारीश्वर उपन्यास के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी सम्मान भी प्रदान किया गया। साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं भारत सरकार की और से पद्मा भूषण पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया।


जिस कृति के लिए विष्णु प्रभाकर जी का नाम हिन्दी साहित्य में अमर हो गया है वो है "आवारा मसीहा"। बंगला लेखक शरत चंद्र पर लिखी गई विष्णु जी की यह रचना हिन्दी में जीवनी विधा की अब तक की सर्वोत्कृष्ट रचना मानी जाती है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि १४ वर्षों के अथक परिश्रम के बाद उन्होंने इसे पूरा किया था। इतने मंथन के पश्चात् तो सागर से मोत्ती निकलना ही था। इस कृति के पीछे भी एक लम्बी कहानी है। दरअसल शरत चंद्र ऐसे साहित्यकार रहे हैं जिनसे हिन्दी साहित्य ही नहीं वरन सिने जगत भी प्रेरणा लेता रहा है। किंतु इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी की "आवारा मसीहा" के पहले तक शरत चंद्र की कोई जीवनी हिन्दी या बंगला में उपलब्ध नहीं थी। संयोग से हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर के स्वामी नाथूराम प्रेमी ने विष्णु जी से शरत चंद्र की जीवनी लिखने को कहा। विष्णु जी ने १९५९ में जीवनी लिखना शुरू किया। उन्होंने शरत से सम्बंधित स्थानों और व्यक्तियों से संपर्क किया, बंगला भाषा भी सीखी। १४ वर्षो के अथक प्रयासों के बाद १९७३ में उन्होंने इस जीवनी को पूरा किया जो बाद के जीवनी लेखकों की कसौटी बन गई।


एक साहित्यकार के रूप में विष्णु जी अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे। उनका कहना था की लेखक तीसरी आँख की तरह है। उसकी दृष्टि से कुछ भी नही छुप सकता। उनका मानना था की लेखक किसी सत्ता का नहीं वरन केवल अपनी चेतना का अंकुश ही स्वीकार कर सकता है।


श्री विष्णु प्रभाकर के निधन के साथ ही हिन्दी साहित्य की गाँधीवादी परम्परा का अंत हो गया है। उनके निधन से हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई है। किंतु साहित्य प्रेमी इस आवारा मसीहा को कभी भुला नहीं सकेंगे।

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